समाज के सारे सिद्धान्त प्रलोभन की उपज है
आचार्य रवि सामाजिक व आध्यात्मिक चिंतक
उज्जैन - समाज के सारे सिद्धात मुर्दा है और समाज के सारे सिद्धान्त मुर्दा अकारण नही है, कारण से है तथा वह कारण भी सारे मनोवैज्ञानिक है, बड़ी दूर दृष्टि के है। अगर समाज के सिद्धान्त जिंदा होते तो समाज को अपने मूल स्वरूप में रहने के लिये बड़ी कठिनाई होती। समाज का विस्तार ही नही होता, समाज ढह जाता, बिखर जाता।
समाज अस्तित्वहीन रहता क्योकिं समाज का टीका रहना ही आदमियों की अज्ञानता से भरी मूढ़ताओं में है और समाज के जिंदा सिद्धांत कभी भी आदमी को मूढ़ताओं से नही बांध सकते थे। क्योकिं मूढ़ताएं है तभी तो समाज है, मूढ़ताएं नही होती तो समाज का फिर कोई औचित्य ही नही बचता। समाज के सारे सिद्धान्त प्रलोभन की उपज है, व्यावसायिक है और व्यावसायिक होने का अर्थ है अव्यवहारिक होना। व्यावसायिक व्यवस्था जहां कही भी है वहाँ फिर गणित चलता है, हिसाब किताब चलते है।
जहां जिस का जितना ज्यादा मजबूत वजन उसी अनुपात में वजन तोलते है और व्यवहार करते है, किंतु यहां व्यवहार जो होता है, अप्राकृतिक व्यवहार है। वह हिसाब किताब का व्यवहार है, मोल तोल का व्यवहार है, प्राकृतिक व्यवहार नही है, अकारण व्यवहार नही है, कारण से है। जिस दिन भी समाज में प्राकृतिककरण हुआ तथा प्राकृतिक व्यवस्था स्थापित हुई तथा जो जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार किया गया, तो समाज टूट कर बिखर जाएगा, फिर समाज बचेगा नही।
समाज बचा ही इस लिए है कि हम अप्राकृतिक ढंग से जीवन को जी रहे है। अभी हमारी जीवन की सारी ऊर्जा अप्राकृतिक करण जीवन निर्मित करने तथा समाज को बचाने में लगी हुई है, इसलिए इस प्रकृति में मानव ने इतनी अव्यवस्था फैला रखी है।
अगर मानव प्राकृतिक व्यवस्था को जीता तो इतनी अव्यवस्था इस परिवेश में नही होती, मानव अपने जीवन को बेढंग तरीके से नही जीता, मानव अपने जीवन को आनंद में जीता, मद मस्त होकर जीता, जीवन को समग्रता से जैसा है वैसा ही जीवन जीता।
किंतु समाज के मुर्दा सिद्धांतो ने मानव को अप्राकृतिक होने के लिए विवश ही नही अपितु समाज ने अपने सिद्धांतो को स्थापित कर, गहराई से मानवों के बीच अपनी जड़े भी जमाई है।
आचार्य रवि
सामाजिक व आध्यात्मिक चिंतक
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