इच्छाएं अनंत, इनके दमन का करें प्रयास - आचार्यश्री महाश्रमण
आचार्यश्री ने उपस्थित जनता को संतोष की चेतना का विकास करने को किया अभिप्रेरित
दाभरूल, जालना (महाराष्ट्र) :आदमी के भीतर इच्छा भी होती है। अनिच्छ कोटि के मनुष्य भी प्राप्त हो सकते हैं। सारे वीतराग मनुष्य सभी अनिच्छ होते हैं। कई मनुष्य महेच्छ अर्थात् बहुत ज्यादा इच्छा वाले भी होते हैं, कई उदारमना भी होते हैं। कई-कई मानव अल्पेच्छ भी होते हैं। मूल बात बताई गई कि आदमी के भीतर प्रधानता असंतोष की नहीं, संतोष की होनी चाहिए।
आदमी की इच्छा तो इतना विराट रूप ले सकती है कि यदि उसे सोने-चांदी के कई पर्वत भी दे दिए जाएं तो भी उसकी और प्राप्त होने की इच्छा जागृत ही रहती है। इसलिए कहा गया कि इच्छाएं आकाश की भांति अनंत हैं। आकाश में कहीं भी जाओ, अंत नहीं मिलता, उसी प्रकार इच्छा भी आकाश के समान अनंत होती है। एक बात हो सकती है कि इच्छा अच्छी भी हो सकती है और बुरी भी हो सकती है। संत हैं, वे आगम पढ़ने, तपस्या करने, आध्यात्मिक उन्नयन करने की इच्छा अच्छी इच्छा हो सकती है और यदि धन, पद, पैसा आदि अत्यधिक इच्छा और लालसा बुरी इच्छा होती है। बताया गया कि स्वदार, भोजन व धन में आदमी को संतोष धारण करने का प्रयास करना चाहिए और अध्ययन, जप और दान में संतोष नहीं करना चाहिए। अध्ययन, जप और दान को जितना किया जाए, उतनी अच्छी बात हो सकती है।
सामान्यतया आदमी के जीवन में धन की आवश्यकता होती है। धन भी दुनिया में रहने के लिए आवश्यक होता है। धन की निंदा आवश्यक नहीं है। आदमी को संतोष के भाव का विकास करने का प्रयास हो। अर्थ के अर्जन में नैतिकता हो और अधिक की लालसा करने से बचने का प्रयास करना चाहिए। आदमी कोई भी कार्य करे, उसमें नैतिकता और ईमानदारी रखने का प्रयास करना चाहिए। आदमी अपनी इच्छाओं पर ब्रेक लगाने का प्रयास हो तो जीवन की दिशा व दशा सुरक्षित रह सकती है। आदमी को मन की कामनाओं को ब्रेक लगाने का प्रयास करना चाहिए।
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