वैर की बर्फ को पिघला सकती है मैत्री की भावना : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण
पुणे (महाराष्ट्र) - महाराष्ट्र की धरा पर अध्यात्मवेत्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपने पावन प्रवचन में कहा कि आदमी के भीतर क्षमा की वृत्ति तो कभी वैर की वृत्ति भी उभरती है। किसी के प्रति शत्रुता का भाव तो कभी मैत्री का भाव भी आता होगा। सभी के प्रति मैत्री के भाव का विकास होना बहुत ऊंची बात होती है। पवित्र मैत्री भाव का होना भी एक साधना की ऊंचाई की बात होती है। सभी प्राणियों के प्रति आदमी के मन में मैत्री का भाव हो। चाहे अमीर हो अथवा गरीब सभी के प्रति मैत्री भाव हो तो परस्पर प्रेम भाव का विकास भी हो सकता है।
मित्रता और क्षमा का भाव मानव को उत्कृष्ट बनाता है। गुस्सा तो जीवन मंे कमजोरी होती है। गृहस्थ जीवन में क्षमा व मैत्री भाव के विकास होना चाहिए। कभी गुस्सा भी आए तो भी किसी के प्रति अपशब्द का प्रयोग न हो। जितना संभव हो सके, सहन करने का प्रयास भी करना चाहिए। कहा गया है- सहन करो, सफल बनो। क्षमा व मैत्री बहुत अच्छा धर्म है। उसे आदमी को अपने जीवन में धारण करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को प्रतिकूलता को भी सहन करने का प्रयास हो और आलोचक के प्रति मंगल मैत्री की भावना रहे। आदमी के भीतर मैत्री की भावना कई बार दूसरों को भी प्रभावित करती है और शत्रु भी मित्र बन सकता है। मैत्री की भावना से वैर भाव की बर्फ भी पिघल सकती है।
आचार्यश्री ने आगे कहा कि हम महाराष्ट्र की धरती पर विहरण कर रहे हैं। कभी परम पूज्य गुरुदेव तुलसी ने भी महाराष्ट्र की यात्रा की थी। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने कुछ यात्रा की थी। महाराष्ट्र की धरती को संतों की धरती कही गई है। हमारे संघ में भी कई संत और साध्वियां आए हुए हैं। जहां भारत एक राष्ट्र है और उसमें यह महाराष्ट्र है। यहां हमारी यात्रा हो रही है। महाराष्ट्र में खूब धर्म की जागरणा होती रहे। सद्भावना, नैतिकता और नशामुक्ति की भावना पुष्ट रहे।
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